2. व्यंजन संधि
1. घोष व्यंजन संधि :-
यदि किसी अघोष व्यंजन के बाद कोई घोष व्यंजन या कोई स्वर (सभी स्वर घोष होते हैं) आए तो वह अघोष व्यंजन अपने घोष रूप में बदल जाता है। अतः अघोष ध्वनि भी अपने घोष रूप (जैसे क् का घोष रूप ग्, त् का घोष रूप द्) में बदल जाती है—
घोष एवं अघोष व्यंजन ; -
जिन व्यंजनों के उच्चारण में हवा के गले से निकलने हैं।"पर स्वरतंत्रियों में कंपन पैदा होता है उन व्यंजनों को घोष कहा जाता है जिनके उच्चारण में यह कंपन नहीं होता उन्हें अघोष कहा जाता है। व्यंजन वर्गों के तीसरे, चौथे और पाँचवें व्यंजन (ग्, घ्, ङ्, ज्, झ्, ञ्, , ड्, ढ्, ण, द्, ध्, न्, ब्, भ्, म्) तथा य्, र्, ल्, व्, ह्, घोष व्यंजन हैं एवं वर्ग के पहले और दूसरे व्यंजन (क्, ख्, च्, छ्, ट्, ठ्, त्, थ्, प्, फ्, और श्, ष, स् -कुल 13 व्यंजन) तथा विसर्ग (:) अघोष हैं। समस्त स्वर घोष वर्ण होते हैं।
अघोष क्, च्, ट्, त्, प्
घोष ग्, ज्, ड्, द्, ब्
क् (अघोष) +अ(घोष) = ग
(note :- सभी स्वर घोष होते हैं)
दिक् (दिशा) + अंबर (वस्त्र) = दिगंबर (नंगा)
दिक् (दिशा) + अंत = दिगंत
दृक् (आँख) + अंचल = दृगंचल (पलक)
वाक् + अर्थ = वागर्थ (भाषा का अर्थ)
क् + ई = गी
वाक् (वाणी) + ईश = वागीश (बृहस्पति)
वाक् + ईश्वरी = वागीश्वरी (सरस्वती)
क् + ऐ= गै
प्राक् (पहले) + ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक
(लिखित साक्ष्य से पूर्व का इतिहास )
क् + ग = ग्ग
तिर्यक् + गति = तिर्यग्गति (टेढ़ी चाल)
दिक् + गज = दिग्गज
दिक् + गजेंद्र = दिग्गजेंद्र /दिग्गजेन्द्र
(दिशाओं के हाथी)
क् + ज = ग्ज
दिक् + ज्ञान = दिग्ज्ञान
वाक् + जाल = वाग्जाल
क् + द = ग्द
दिक् + दर्शन = दिग्दर्शन
दिक् + दिगंत (दिक्+अंत) = दिग्दिगंत
वाक् + दत्ता = वाग्दत्ता (वाक् (जबान) द्वारा दी जा चुकी अर्थात् जिस लड़की की सगाई हो गई हो)
वाक्+ दान = वाग्दान (सगाई)
वाक् + देवी = वाग्देवी (सरस्वती)
क् + ध = ग्ध
वाक् + धारा = वाग्धारा (वाणी-प्रवाह)
पृथक् + धर्म = पृथग्धर्म (अलग धर्म)
क + ब= ग्ब
दिक्+ बोध = दिग्बोध (दिशाओं का ज्ञान)
क् + भ = ग्भ
दिक् + भ्रम = दिग्भ्रम
क् + व = ग्व
ऋक् + वेद = ऋग्वेद
त्वक् + विकार = त्वग्विकार (चर्मरोग)
दिक् + विजय = दिग्विजय
दृक् + विकार = दृग्विकार (दृष्टिदोष)
प्राक् + वैदिक = प्राग्वैदिक (वेदों से पूर्व)
वाक् + वज्र = वाग्वज्र
वाक् + विदग्धता = वाग्विदग्धता
वाक् + विलास (क्रीडा) = वाग्विलास (गपशप)
वाक् + वैभव = वाग्वैभव
वाक् + व्यापार = वाग्व्यापार
क् + ह = ग्ह
दिक् + हस्ती = दिग्हस्ती
वाक् + हरि = वाम्हरि / वाग्घरि (ग् + ह (महाप्राण) = ग्घ)
च् + अ = ज
अच् (ह्रस्व स्वर) + अंत = अजंत
ट् + अ = ड
विराट + आकार = विराडागार
विराट् + रूप = विराड्रूप
विराट् + आयोजन =विराडायोजन
षट् + अंग = षडंग
षट् + अक्षर = षडक्षर (मंत्र)
षट् (जो छहों दर्शनों को अच्छी तरह से जानताहै।) + अभिज्ञ = षडभिज्ञ (बुद्ध)
षट् + ऋतु = षड्ऋतु
ट् + आ = डा
षट् + आनन (मुख) = षडानन (कार्तिकेय)
ट् + ग = ड्ग
षट् + गुण = षड्गुण
ट् + द = ड्द
षट् + दर्शन = षड्दर्शन
षट् + भुजा = षड्भुजा (दुर्गा)
ट् + य = ड्य
षट् + यंत्र = षड्यंत्र
ट्+र= ड्र
षट् + रस = षड्रस
षट् + राग = षड्राग
त् + अ = द
चित् (चेतना) + अणु =चिदणु
जगत् + अंबा = जगदंबा
महत् + अर्थ = महदर्थ
त् + आ = दा
चित् + आकार =चिदाकार
जगत् + आचार्य= जगदाचार्य
जगत् + आनंद = जगदानंद
महत् आकाश = महदाकाश
वृहत् + आकाश = वृहदाकाश
सच्चित् (सत्+चित्) + आनंद = सच्चिदानंद
सत् + आचार = सदाचार
सत् + आत्मा = सदात्मा
सत् + आनंद = सदानंद
सत् + आशय = सदाशय
त् + इ = दि
महत् + ईच्छा = महदिच्छा
सत् + इच्छा = सदिच्छा
त् + ई = दी
जगत् + ईश = जगदीश
भवत् (आप) + ईय = भवदीय (आपका)
त् + उ = दु
सत् + उपयोग = सदुपयोग
सत् + उपदेश = सदुपदेश
सत् + उद्योग = सदुद्योग
त् + ग = द्ग
जगत् + गुरु = जगद्गुरु
भगवत् + गीता = भगवद्गीता
विद्युत +दीप = विद्युद्दीप
सत् + गति = सद्गति
सत् + गुण सद्गुण
त् + द = द
जगत् + देव = जगदेव
पोत् + दार = पोद्दार
त् + ध = द्ध
भगवत् + ध्यान = भगवद्ध्यान
विद्युत् + धारा = विद्युद्धारा
विद्युत् + ध्वज = विद्युद्ध्वज (इंद्र)
(जिसका झंडा बिजली का हो)
सत् + धर्म = सद्धर्म
साक्षात् + धर्म = साक्षाधर्म
त् + ब = द्ब
सत् + बुद्धि = सद्बुद्धि
त् + भ = द्भ
भगवत् + गीता = भग्वद्गीता
भगवत् + भक्ति = भगवद्भक्ति
श्रीमत् + भागवत = श्रीमद्भागवत
सत् + भाव = सद्भाव
त्+र = द्र
चित् + रूप = चिद्रूप (ज्ञानस्वरूप)
जगत् + रूप = जगद्रूप
भगवत् + रूप = भगवद्रूप
सत् + रूप = सद्रूप
त् + व = द्व
चित् + विलास = चिविलास (चेतना का खेल)
पश्चात् + वर्ती = पश्चाद्वर्ती (बाद में आनेवाला)
भगवत् + विग्रह (मूर्ति) = भगवद्विग्रह
विद्युत् + वेग = विद्युवेग
विद्वत् + वर्ग = विद्ववर्ग
सत् + वंश = सद् वंश
प् + अ = ब
सुप् + अंत = सुबंत (वह शब्द जिसके अंत में सुप् प्रत्यय हो)
तिप् + अंत = तिबंत (वह शब्द जिसके अंत में तिप् प्रत्यय हो)
प् + ज = ब्ज
अप् (पानी) + ज = अब्ज (कमल)
प् + द = ब्द
अप् (पानी) + द = अब्द (बादल, वर्ष)
प् +ध = ब्ध
अप् + धि (भंडार) = अब्धि (समद)
2. अघोष व्यंजन संधि
अघोष व्यंजन संधि में केवल द व्यंजन का उदाहरण मिलता है, जो अघोष हो जाता है। घोष व्यंजन द् के बाद यदि अघोष व्यंजन क् , त्, थ्, प्, स् आदि आए तो पहलेवाला घोष व्यंजन द् अपने अघोष रूप त् में बदल जाता है। कुछ उदाहरण इस तरह हैं
घोष + अघोष = अघोष
द् + क् त् थ् प् स् = त्
द् + क = त्क
आपद् + काल आपत्काल
उद् + कीर्ण = उत्कीर्ण (खुदा हुआ)
उद् + कृष्ट = उत्कृष्ट
उद् + कोच = उत्कोच (घूस)
उद् + क्षिप्त = उत्क्षिप्त (उछाला हुआ)
उपनिषद् + काल = उपनिषत्काल
तद् + काल = तत्काल
विपद् + काल = विपत्काल
शरद् + काल = शरत्काल
द् + त = त्त
उद् + तम = उत्तम
उद् + तप्त = उत्तप्त
उद् + तर = उत्तर
उद् + ताप = उत्ताप
उद् + तीर्ण (तैरना) = उत्तीर्ण
मृद् + तिका = मृत्तिका
विपद् + काल = विपत्काल
विपद् + ति = विपत्ति
संपद् + ति = संपत्ति
द् + थ = स्थ
उद् + स्थान = उत्थान (इस संधि में स् का लोप भी हुआ है जिसका विवेचन आगे व्यंजन लोप संधि में भी किया गया है।)
उद् + स्थापन = उत्थापन
उद् + स्थित उत्थित
शरद् + पूर्णिमा = शरत्पूर्णिमा
द् +प = त्प
उद् + पन्न = उत्पन्न
उपनिषद् + सार= उपनिषत्सार
तद् + पर = तत्पर
तद् + परायण = तत्परायण (आसक्त)
तद् + पुरुष = तत्पुरुष
मृद् + पात्र = मृत्पात्र (मिट्टी का बर्तन)
मृद् + परीक्षण = मृत्परीक्षण (मिट्टी की जाँच)
द् + स = त्स
उद् (अच्छा, श्रेष्ठ, ऊँचा) + साह (प्रतिरोध करना) = उत्साह
उद् + सर्ग = उत्सर्ग (त्याग)
उद् + सव (यज्ञ, कर्म) = उत्सव
3. अनुनासिक व्यंजन संधि
अनुनासिक (नाक से बोले जानेवाले) और निरनुनासिक (मुँह से बोले जानेवाले) व्यंजनों के परस्पर निकट आने से या तो अनुनासिक व्यंजन निरनुनासिक व्यंजन को अनुनासिक व्यंजन में बदल देता है या अनुनासिक व्यंजन का उच्चारण-स्थान बदल जाता है। अनुनासिक व्यंजन संधि के दो रूप हैं उत्तर-अनुनासिक व्यंजन संधि एवं पूर्व-अनुनासिक व्यंजन संधि ।
(i) उत्तर अनुनासिक व्यंजन संधिः
यदि किसी वर्ग के पहले अथवा तीसरे व्यंजन (क् ट् त् द्) के बाद (उत्तर) कोई अनुनासिक व्यंजन (न् म्) आए तो वह पहला व्यंजन अपने वर्ग के अनुनासिक व्यंजन (क् –ङ्, ट्- ण् आदि में) बदल जाता है, यही उत्तर-अनुनासिक व्यंजन संधि है; जैसे
निरनुनासिक अनुनासिक अनुनासिक
क् ङ्
ट् + म/न = ण्
त्/द् न्
क् + म / न = ङ्
दिक् + नाग = दिङ्नाग
दिक् + मंडल = दिङ्मंडल
वाक् (वाणी) + निपुण = वानिपुण
वाक् + नियंत्रण = वानियंत्रण
क् + म = ङ्म
दिक् + मंडल (दिशाओं का घेरा) = दिड्मंडल
दिक् + मुख = दिङ्मुख
दिक् + मूढ़ = दिङ्मूढ़ (दिशाभ्रमित)
वाक् + मय = वाड्मय (जो कुछ भाषा में कहा गया है। )
ऋक् (छंद) + मंत्र = ॠमंत्र
ट् + म = ण्म
षट् + मास = षण्मास
षट् + मातुर (माओंवाला) = षण्मातुर
षट् + मूर्ति = षण्मूर्ति (कार्तिकेय)
षट् + मुख षण्मुख (कार्तिकेय)
त् + न = न्न
जगत +नाथ = जगन्नाथ
जगत् + निवास= जगन्निवास (विष्णु)
जगत् +नियंता = जगन्नियंता
बृहत् + नल = बृहन्नल (अर्जुन)
बृहत् + नेत्र = बृहन्नेत्र (दूरदर्शी)
सत् सत् + नारी = सन्नारी
सत् + निधि = सन्निधि
त् + म = न्म
चित् + मय = चिन्मय (चेतना से युक्त)
जगत् + माता = जगन्माता
जगत् + मोहिनी = जगन्मोहिनी
बृहत् + माला = बृहन्माला (कार्तिकेय)
विद्युत + माला = विद्युन्माला
सत् + मार्ग = सन्मार्ग
सत् + मति = सन्मति
सत् + मान = सन्मान
द्+न = न्न
उद नयन उन्नयन
उद् +नत= उन्नत
उद् + निद्र = उन्निद्र (उनींदा)
द् + म = न्म
उद् + मत्त = उन्मत्त
उद् + माद (मस्ती) = उन्माद
उद् + मन = उन्मन
उद् + मान = उन्मान (नाप-तौल)
उद् + मुख = उन्मुख
उद् + मूलन = उन्मूलन (जड़ को ऊपर कर
उद् + मेष (आँख का खुलना) = उन्मेष (नवसृझ
तद् + मात्र = तन्मात्र
तद् + मय = तन्मय
द् के पहले यदि ऋ स्वर (ऋ का उच्चार स्थान मूर्धा है) आता है तो द् मूर्धन्य अनुनासिक व्यंजन (ण) में बदलता है; जैसे
मृद् + मय = मृण्मय
मृद् + मूर्ति = मृणमूर्ति ( मिट्टी की मूर्ति)
मृद् + मयी = मृण्मयी आदि।
(ii) पूर्व अनुनासिक व्यंजन संधि : - पूर्व अनुनासिक व्यंजन संधि में पहला व्य अनुनासिक व्यंजन (केवल म् व्यंजन के हैं। उदाहरण मिलते हैं) होता है तथा दूसरा व्यंजन निरनुनासिक होता है। इसमें म् का उच्चारण स्थान बदल जाता है। यदि पहले अनुनासिक व्यंजन म् आए और बाद में चारों निरनुनासिक यंजनों (क्, गु, घ, च्, ज् आदि) में से कोई अनुनासिक आए तो म् बादवाले व्यंजन के अनुनासिक रूप अर्थात् उसके पाँचवें व्यंजन में बदल जाता है
अप् (पानी) + मय = अम्मय (जलमय)
अप् + मात्रा = अम्मात्रा (जल की मात्रा)
निरनूनासिक अनुनासिक
क, ग, घ ङ्
च, ज ञ्
म् + ड ण्
त द ध न न्
य र ल व श ष स ह
म् के बाद जो व्यंजन जिस स्थान से उच्चरित होने बाला है, म् भी उसी स्थान से उच्चरित हो जाता है, अतः वह उसी व्यंजन के अनुनासिक रूप में बदल जाता है। इसलिए जहाँ भी म् की संधि आए वहाँ उसके पूर्ववाले व्यंजन के ऊपर अनुस्वार लगाकर लिखा जा सकता है;
जैसे -सम् + कर = सङ्कर -- संकर।
म् + क = ङ्क
अलम् (श्रेष्ठ) + कृति = अलङ्कृति (अलंकृति)
अलम् + करण = अलङ्करण (अलंकरण)
अलम् + कार = अलङ्कार (अलंकार)
अलम् + कृत = अलङ्कृत (अलंकृत)
किम् + कर = किङ्कर (किंकर)
तीर्थम् + कर = तीर्थङ्कर (तीर्थंकर)
दीपम् + कर = दीपङ्कर (दीपंकर)
शम् (शांति) + कर शङ्कर (शंकर)
शुभम् + कर = शुभकर (शुभंकर)
सम् + क्रामक = सङ्क्रामक (संक्रामक)
सम् + क्षेप (वषेप) = सङ्क्षेप (संक्षेप)
सम् (उचित) + कलन (एकत्र) = सङ्कलन (संकलन)
सम् + कल्प = सङ्कल्प (संकल्प)
म् + ग = ङ्ग
अस्तम् (अस्त होने को गया हुआ) + गत = अस्तङ्गत (अस्तंगत)
दिवम् (स्वर्ग) + गत = दिवङ्गत (दिवंगत)
सम् + घटन = संघटन
सम् + गठन (ठीक तरह से गठित करना) = सङ्गठन (संगठन)
सम् + गम = सङ्गम (संगम)
म् +घ = ङ्घ
सम् + घटन= सङ्घटन (संघटन) (ठीक तरह से घटित होना)
सम् + घात = सङ्घात (संघात)
सम् + घनन = (संङ्घनन (संघनन)
सम् + घर्ष = संघर्ष
म् + च = ञ्च
अकिम् + चन = अकिञ्चन (अकिंचन)
किम् + चित् = किञ्चित् (किंचित् = थोड़ा)
पम् + चम= पञ्चम (पंचम)
सम् + चय (एकत्र) = सञ्चय (संचय)
सम् + चालन सञ्चालन (संचालन)
सम् + चित = सञ्चित (संचित)
म् + ज = ञ्ज
अम् + जन = अञ्जन (अंजन)
चिरम् + जीवी = चिरञ्जीवी (चिरंजीवी)
धनम् + जय = धनञ्जय (धनंजय )
मम् + जन = मञ्जन (मंजन)
मृत्युम् + जय = मृत्युञ्जय (मृत्युंजय)
सम् + जीवनी सब्जीवनी (संजीवनी)
सम् + ज्ञा (जानना) = संज्ञा
म + ड= ण्ड
दम् + ड= दण्ड (दंड)
म् + त = न्त
चिरम् + तन = चिरन्तन (चिरंतन)
परम् + तु = परन्तु (परंतु)
सम् + तोष = सन्तोष (संतोष)
सम् + तुष्ट = संतुष्ट (संतुष्ट)
सम् + ताप = सन्ताप (संताप)
म् + द= न्द
पुरम् + दर = पुरन्दर (इंद्र)
सम् + देह = सन्देह (संदेह)
सम् + देश (कथन) = सन्देश (संदेश)
सम् + दिग्ध (दोषयुक्त) = सन्दिग्ध (संदिग्ध)
सम् + दर्भ = सन्दर्भ (संदर्भ)
म् + ध = न्ध
धुरम् (धुरी) + घर (धारण करने वाला) = धुरन्धर (घुरंधर)
सम् + धि = सन्धि (संधि)
म् + न = न्न
किम् + नर = किन्नर
सम् + निवेश = सन्निवेश
सम् + न्यासी = सन्न्यासी (जीवन की विशिष्ट) संरचना वाला)
सम् + निहित = सन्निहित
सम् + निकट = सन्निकट
जब दो अनुनासिक व्यंजन संयुक्त रूप साथ-साथ आते हैं तो प्रथम स्वर रहित अनुनासिक व्यंजन मूल रूप में ही लिखा है, अनुस्वार रूप (-ं-) में नहीं जैसे- सन्न्यासी न कि संन्यासी, सन्निहित न कि संनिहित ,यदि म् के पश्चात् क् से म् तक के स्पर्श व्यंजन के अलावा ऊष्म व्यंजन (श् ष स् अथवा अंतस्थ व्यंजन (य् र् ल् व्) आए म् अनुस्वार (-ं-) में बदल जाता है; जैसे
किम् + वदंती = किंवदंती
किम् + वा = किंवा
सम् + योजक = संयोजक
सम् + रचना संरचना
सम् + लिप्त = संलिप्त
सम् + वाहक = संवाहक
सम् + वेग = संवेग
सम् + शोधन = संशोधन
सम् + श्लेषण = संश्लेषण
सत् + हिता= संहिता
सम् + हार (हरण करना) = संहार
सम् + यम (विचार) = संयम
सम् + योग = संयोग
सम् + रक्षक = संरक्षक
सम् + लग्न संलग्न
सम् + वर्धन (वृद्धि) = संवर्धन
सम् + वाद = संवाद
सम् + विधान = संविधान
सम् + शोधन= संशोधन
सम् +सार = संसार
सम् + स्मरण = संस्मरण
स्वयम् + वर = स्वयंवर
(4) त्/द् की संधि :-
त् एवं द् वर्ण बहुत लोचदार व्यंजन हैं। ये किसी अन्य व्यंजन के साथ मिलने पर उसका तुरंत प्रभाव ले लेते हैं। त् एवं द् के उच्चारण में जीभ ऊपर के दाँत का स्पर्श करने आती है और फिर यदि उसे अन्य व्यंजनों के उच्चारण के लिए मुँह में अन्य स्थानों (तालु, मूर्धा आदि) पर भी जाना हो तो ऐसी स्थिति में जीभ त्/द् का उच्चारण करने के लिए दाँतों का स्पर्श करने के बजाय वह सीधे ही दूसरे व्यंजन के उच्चारण स्थान पर चली जाती है इससे बादवाले व्यंजन के अनुसार त्/द् के अनेक रूप बन जाते हैं --
च च्च
छ च्छ
ज ज्ज
ट ट्ट
त्/थ् + ड = ड्ड
ल ल्ल
ह द्ध
श च्छ
त् / द् + च = च्च
उद् + चाटन उच्चाटन
उद् + चारण उच्चारण
उपनिषद् + चिंतन उपनिषच्चितन
तडित् + चालक = तडिच्चालक
भगवत् + चिंतन भगवच्चितन
विद्युत् + चक्र = विद्युच्चक्र
विद्युत् + चालक = विद्युच्चालक
सत् + चरित्र = सच्चरित्र
सत् + चिदानंद = सच्चिदानंद (सत् + चित् + आनंद)
समुद् (सम् + उद्) + चय= समुच्चय
त् / द् + छ = च्छ
उद् + छिन्न = उच्छिन्न (कटा हुआ)
उद् + छादन उच्छादन (ढकना)
उद् + छेद = उच्छेद
त्/द् + ज= ज्ज
उद् + जयिनी (विजय प्राप्त करनेवाली) = उज्जयिनी
उद् + ज्वल = उज्ज्वल
जगत् + जननी जगज्जननी
तडित् + ज्योति = तड़िज्योति
तद् + जनित = तज्जति
तद् + जन्य = तज्जन्य (उससे उत्पन्न)
बृहत् + जन = बृहज्जन
यावत् (जब तक) + जीवन = यावज्जीवन
विद्वत् + जन = विद्वज्जन
विपद् +जाल= विपज्जाल
सत् + जन =सज्जन
त्/द् + ट = ट्ट
उपनिषद् + टीका = उपनिषटूटीका
बृहत् + टीका = बृहट्टीका
द् + इ = ड्ड
उद् + डयन (पंख) = उड्डयन (उड़ान)
त्/द् + ल = ल्ल
उद् + लास (क्रीडा/नृत्य) = उल्लास
उद् + लघन उल्लंघन
उद् + लिखित = उल्लिखित
उद् + लेख = उल्लेख
जगत् + लीला = जगल्लीला
तद् (उसमें) + लीन = तल्लीन
विद्युत् + लेखा (रेखा) = विद्युल्लेखा
विपद् + लीन = विपल्लीन (विपदाग्रस्त)
शरद् + लास = शरल्लास
त्/द् + ह = द् ध /द्ध
ह् घोष है और महाप्राण भी है, इसलिए ह् घोष से त् अपने घोष रूप द् में बदल जाता है, अब ह् द् के स्थान से उच्चरित होकर महाप्राण ध् बन जाता है । द् तो ज्यों-का-त्यों ही है।
उद् + हार = उद्धार
उद् + हृत (हरण किया हुआ) = उद्धृत
उद् + हरण = उद्धरण
तद् + हित = तद्धित
त् / द् + श= च्छ
त् दंत्य है और श् तालव्य श् के प्रभाव त् अपना दंत्य स्थान छोड़कर तालव्य स्थान जाकर च् उच्चरित होता है और च् (स्पर्श्य) प्रभाव से श् (संघर्षी महाप्राण) छ् (स्पर्श्य महाप्राण) में बदल जाता है
उद् + शासन = उच्छासन (निरंकुश)
उद् + शिष्ट = उच्छिष्ट (झूठा, बचा हुआ
उद् + शृंखल (शृंखला-नियम) =उच्छृंख (जो नियमों को न माने)
उद् + श्वास= उच्छ्वास
उद् + श्वसन = उच्छ्वसन
उद्+ शास्त्र = उच्छास्त्र (शास्त्रविरुद्ध)
मृद् (मिट्टी) + शकटिक (गाड़ी) = मृच्छकि
श्रीमत् + शरद् + चंद्र = श्रीमच्छरच्चंद
श्रीमद् + शंकराचार्य - श्रीमच्छंकराचार्य
सत् + शासन = सच्छासन
सत् + शास्त्र =सच्छास्त्र
सत् + शिक्षा =सच्छिक्षा
सत् + शिष्य = सच्छिष्य
(5) मूर्धन्य व्यंजन संधि - संस्कृत में संधि की प्रक्रिया में कुछ दंत्य ध्वनियों के मूर्धन्य बन जाने की प्रवृत्ति है।
(i) स का मूर्धन्यीकरण ;- यदि स् व्यंजन शुरू होनेवाले शब्द के पहले इ या उ स्वर आता है तो दंत्य स मूर्धन्य ष में बदल जाता है क्योंकि इ एवं उ स्वर के उच्चारण में जीम का मध्य एवं मूल भाग मूर्धा के समीप पहुँचता
इ +स/ स्= ष /ष्
अघि + स्थान अधिष्ठान
अभि + सेक (सींचना) = अभिषेक
उपनि + सद् = उपनिषद्
नि + संग =निषंग (तरकश)
नि + सन्न =निषण्ण (बैठा हुआ)
नि + साद (क्षीण, पीड़ा) = निषाद
निः + सिद्ध = निषिद्ध (वर्जित)
नि +सेध =निषेध
नि + स्था (स्थित होना) = निष्ठा
परि + सद् = परिषद्
प्रति + सेघ =प्रतिषेध
प्रति + स्था =प्रतिष्ठा
युधि (युद्ध) + स्थिर = युधिष्ठिर
वि + सन्न = विषण्ण (शांत)
वि + सम = विषम
वि + साद = विषाद
वि + स्था = विष्ठा (मल)
उ + स/= ष
अनु + संगी =अनुषंगी
अनु + स्थान =अनुष्ठान
सु + सुप्त सुषुप्त
सु + स्मिता = सुष्मिता
(iii) न् का मूर्धन्यीकरण- ण्
न के पूर्व इ, ऋ, र, ष आदि मूर्धन्य या मूर्धन्य के निकट की ध्वनियाँ आती हैं तो दंत्य न मूर्धन्य ण में बदल जाता है—
इ / ऋ/ र्/ ष् + न = ण
अपर + अह्न = अपराहण
उत्तर + अयन= उत्तरायण
नारा (जल) + अयन (स्थान) = नारायण
नि + स्नात = निष्णात (कुशल)
परि +नत =परिणत
पर+ नति= परिणति
परि+ नय =परिणय
परि +नाम =परिणाम
परि +मान= परिमाण
पुरा +न = पुराण
पूर्व+ अहन् =पूर्वाहण
पोष+ अन = पोषण
प्र+ अंगन= प्रांगण
प्र + आन =प्राण
प्र +न = प्रण
प्र +नय (नीति) = प्रणय
प्र +नयन= प्रणयन (रचना करना)
प्र +नत = प्रणत
प्र + नव = प्रणव (ओम्)
प्र + नाम =प्रणाम
प्र +नीत = प्रणीत (रचित)
प्र +नेता =प्रणेता
प्र +मान =प्रमाण
प्र +यान =प्रयाण
राम +अयन= रामायण
शूर्प +नखा =शूर्पणखा
(शूप छाज जैसे बड़े नाखूनवाली)
(6) स् का तालव्यीकरण (श्) एवं मूर्धन्यीकरण (ष्)
संस्कृत में दुस् और निस् उपसर्ग माने गए हैं (न कि दुः एवं निः) । यदि ये दंत्य ध्वनियों के पहले लगते हैं, तो संधि नहीं मानी जाएगी क्योंकि इनके दुस् एवं निस् रूप में परिवर्तन नहीं होता क्योंकि यहाँ कोई ध्वनि-परिवर्तन नहीं हो रहा, ये संयोग के उदाहरण हैं, कुछ लोग प्रांतिवश दुः और नि: उपसर्ग मानकर इनमें विसर्ग संधि मान लेते हैं, जो अशुद्ध है—
दुस +सह = दुस्सह / दुःसह
दुस् +साध्य =दुस्साध्य / दुःसाध्य
दुस् + साहस= दुस्साहस/दुःसाहस
निस+ स्वार्थ =निस्स्वार्थ / निःस्वार्थ
निस +संकोच = निस्संकोच/निःसंकोच
निस्+ संज्ञ= निस्संज्ञ/निः संज्ञ
निम् + संतान = निस्संतान / निःसंतान
निस + संदेह = निस्संदेह / निःसंदेह
निस् + सहाय = निस्सहाय/निःसहाय
निस् +सार= निस्सार/निःसार
निस् + सृत = निस्सृत/निःसृत
(i) दुस् ,निस + तालव्य ध्वनियाँ
दुश/ निश् -- यदि दुस् और निस् उपसर्ग के बाद तालव्य च, छ, श आए दुस् - दुश् एवं निस् -निश् हो जाता है अर्थात दुस् ,निस् दंत्य स् तालव्य श् बन जाता (संस्कृत में दुस/निस को ही सम्मिलित किया है, इसलिए इनके दुश् / निश्, दुष्/निष् को संधि माना जा सकता है)
दुस्/निस् + तालव्य ध्वनियाँ (च, छ, श) = दुश्/ निश् --
दुस् + चरित्र = दुश्चरित्र
निस+ शत्रु = निश्शत्रु
दुस् +शासन =दुश्शासन
दुस् + शील = दुश्शील
निस् + चित् = निश्चित्
निस् + चल = निश्चल
(ii) दुस् / निस् + क, प, फ 'दुष्/निस्→निष् -यदि दुस्/निस् के बाद क, प, फ व्यंजन आए तो दुस्' एवं निस् निष् हो जाते हैं। क,प,फ नहीं करके दुस/निस में स् से पहले स्वर उ एवं इ निर्धारित करते हैं।
उदाहरण इस प्रकार
(क) दुस/निस् + क = दुस् दुष्/निस्
दस्+कर =दुष्कर
दुस्+कर्म = दुष्कर्म
दुस्+ कृत्य = दुष्कृत्य
निस्+ कंटक = निष्कंटक
निस् +कपट =निष्कपट
निस् +कर्ष = निष्कर्ष
निस्+ कलुष = निष्कलुष
निम् + काम =निष्काम
निस् + क्रमण निष्क्रमण
निस +क्रिय= निष्क्रिय
(ख) दुस/ निस् + प/फ = दुस् दुष्/
दुस् + परिणाम = दुष्परिणाम
दुस्+ प्रचार =दुष्प्रचार
निस्+ पंक = निष्पक
निस्+पक्ष = निष्पक्ष
निस् + पादन = निष्पादन
निस्+ पाप = निष्पाप
निस् +प्रयोजन = निष्प्रयोजन
निस् + फल = निष्फल
7. व्यंजन आगम संधि -
कुछ स्थितियों में दो शब्दों का मेल होने पर उनके बीच कुछ व्यंजनों (च्, स्/प) का आगम हो जाता है, व्यंजन आगम से होनवाला ध्वनि परिवर्तन व्यंजन आगम संधि कहलाता है
(i) च् का आगम - यदि पहले शब्द के अंत में स्वर हो और दूसरे शब्द के शुरू में छ् व्यंजन आए तो बल (stress) के कारण छ् से पहले च् का आगम हो जाता है -
पद छेद = पदच्छेद
अंग + छद = अंगच्छद
अंग + छेद = अंगच्छेद
अनु + छेद = अनुच्छेद
अप + छाया = अपच्छाया
आ + छन्न = आच्छन्न (ढका हुआ)
आ + छादन = आच्छादन (छा देना)
छत्र + छाया = छत्रच्छाया
परि + छद = परिच्छद
परि+छेद = परिच्छेद
प्र + छन्न = प्रच्छन्न (ढका )
प्रति + छाया = प्रतिच्छाया
मुख + छाया = मुखच्छाया
वि + छेद = विच्छेद
स्व + छंद = स्वच्छंद
(ii) स्/प् का आगम- यदि सम् उपसर्ग के बाद कृ धातु से बने शब्द कृत, कार, कृति, करण, कर्ता आए तो दंत्य स् का आगम हो जाता है.
सम् + कृति = संस्कृति
सम् + करण = संस्करण
सम् +कर्ता =संस्कर्ता
सम् +कार = संस्कार
सम् + कृत = संस्कृत
यदि परि के बाद कृत, कार, कृति, करण, कर्ता आदि आएँ तो मूर्धन्य ष् का आगम हो जाता है। परि के इ स्वर के कारण मूर्धन्य प होता है—
परि + कृत = परिष्कृत
परि +कार = परिष्कार
परि + कृति = परिष्कृति
परि +करण = परिष्करण
परि +कर्ता = परिष्कर्ता
8. व्यंजन लोप संधि
कुछ शब्दों के साथ अन्य शब्दों का मेल होने पर प्रथम शब्द के अंतिम व्यंजन (न, स्) का लोप हो जाता है, यही व्यंजन लोप संधि कहलाती है, इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
(i) संस्कृत में कुछ शब्दों का न से अंत होता है; जैसे-आत्मन्, पक्षिन्, प्राणिन्, युवन् आदि। संधि होने पर इन शब्दों का न लुप्त हो जाता है; जैसे
आत्मन् + विश्वास = आत्मविश्वास
आत्मन् + हंता (मारनेवाला) = आत्महंता
युवन् + वर्ग =युववर्ग (युवावर्ग अशुद्ध)
पक्षिन् + गण = पक्षिगण
पक्षिन् +राज = पक्षिराज
प्राणिन् + मात्र = प्राणिमात्र
प्राणिन् +विज्ञान = प्राणिविज्ञान
मंत्रिन् + मंडल =मंत्रिमंडल
युवन् + अवस्था= युवावस्था
युवन् + आचार्य =युवाचार्य
युवन् + राज =युवराज
युवन् +वाणी =युववाणी
योगिन् + ईश्वर =योगीश्वर
राजन् + ऋषि = राजर्षि
राजन् + कोष = राजकोष
राजन् + गृह राजगृह
राजन् + प्रासाद =राजप्रासाद (राजमहल)
शशिन् + कला =शशिकला
सन्न्यासिन् + वर्ग = सन्न्यासिवर्ग
स्वामिन् + भक्त =स्वामिभक्त
(ii) स् का लोप संस्कृत के कुछ शब्दों में संधि होने पर पहलेवाली ध्वनि सुरक्षित रहती है तथा बादवाली ध्वनि समवर्ण होने के कारण लुप्त हो जाती है। इस प्रकार की संधि संस्कृत में पूर्व रूप संधि भी कहते हैं; जैसे
उद्+ स्थान = उत्थान (यहाँ थ अघोष के कारण उद् का उत् हो गया है।
कुछ संधियों में प्रथम ध्वनि तुप्त हो जाती है और बादवाली ध्वनि रहती है, इसलिए यह पररूप संधि कहलाती है; जैसे
मनस् + ईष (इच्छा) = मनीष
मनस् + ईषा =मनीषा
यहाँ मनस् की अंतिम दो ध्वनिय का लोप हुआ है।
(ii) र् का लोप यदि दुर् और निर् के बाद र आए तो का दू तथा निर् का नी हो जाता है। आगे पहले से ही र होने के कारण उपसर्ग के र् का लोप हो जाता है तथा नि एवं दु का हस्व स्वर दीर्घ हो जाता है; जैसे
दुर् +राज= दूराज
निर्+ रोग = नीरोग
निर्+ रंध्र (छेद) = नीरंध्र
(iv) र् का स्/श् या विसर्ग में परिवर्तन अंतर् और पुनर् उपसर्गों के बाद अघोष ध्वनि आती है तो विकल्प से या तो र् विसर्ग (:) में बदल जाता है या दंत्य ध्वनियों (त, स) से पहले स् में और तालव्य ध्वनियों (च, श) से पहले तालव्य श् में बदल जाता है, जैसे
अंतर्+ कथा = अंत: कथा
अंतर्+ करण = अंतः करण
अंतर् +पुर = अंतः पुर
अंतर +स्राव =अंत: स्राव
पुनर् +प्रसारण= पुनः प्रसारण
पुनर्+ प्राप्ति = पुनः प्राप्ति
र् + च् /श = श्/:
अंतर् + चेतना = अतश्चेतना /अंत: चेतना
पुनर् + च = पुनश्च
पुनर् + चर्वण = पुनश्चर्वण (पागुर करना)
र् + त् / स→ स्
अंतर् + तल = अंतस्तल
अंतर् + ताप = अंतस्ताप
अंतर् + सार = अंतस्सार (भीतरी सार, आत्मा)
पुनर् + संस्स्कार = पुन:संस्कार
पुनर् + सर्जन = पुनस्सर्जन / पुन: सर्जन
(v) अहन् की संधि-अहन् (दिन) शब्द के बाद र् को छोड़कर अन्य कोई वर्ण आए तो अहर् हो जाता है तथा र् आए तो अहो हो जाता है।
अहन् + र = अहो
अहन् + रात्रि = अहोरात्र (संधि में रात्रि शब्द में इ का लोप हो जाता है)
अहन् + रूप = अहोरूप
अहन् +र (र न होने पर) = अहर्
अहन् + निशा = अहर्निश (दिनरात)
(संधि में निशा में आ का लोप हो जाता है)
अहन् + मुख = अहर्मुख (उषाकाल)
अहन् + अहन् = अहरह
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